हम आपको कायस्थों के खास खान-पान की रवायतों से रू-ब-रू करा रहे हैं. उनकी रसोई में बनने वाले खानों की विविधता और स्वाद की बात ही अलग रही है. आज की कड़ी में पूर्वी यूपी और बिहार के कायस्थों के खानपान की बातें
सरसों तेल में बने मीट के व्यंजनों में एक खास टैक्सचर स्वाद में मिलता है, कायस्थों का मांसाहार इसमें ज्यादा बनता है
जाड़ों में जब हरी मटन प्रचुरता से बिकने लगती है तब इस मौसम में दो खास व्यंजन होते थे. एक निमोना और दूसरी घूघनी.
पाककला में पकती हुई सामग्री के साथ निकलती भाप को बाहर नहीं निकलने देने का भी एक मतलब होता है
अब बात पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में रहने वाले कायस्थों की बात करते है. जिनके खानों में बहुत समानता देखने को मिलती है. गंगा, यमुना और गोमती जैसी नदियों से उर्वर होने वाले इस इलाके में प्रचुर मात्रा में कृषि है. उपजने वाली तरह-तरह की सब्जियां, खाद्यान्न, तिलहन और दलहन. उसका असर इस पूरे क्षेत्र के समृद्ध खानपान पर खूब नजर भी आता है.
इस सीरीज में हम कायस्थों के जिन व्यंजनों की बात कर रहे हैं, वो जरूरी नहीं कि वो उनके द्वारा ईजाद किए गए हों बल्कि ये बताना है कि कायस्थों की रसोइयों में खाने-पीने में क्या बनता था और क्या उनकी जीभ को भाता था. हां, ये जरूर कहा जा सकता है कि हर व्यंजन को उन्होंने अपने तरीके से और समृद्ध और जायकेदार जरूर बनाया.
मशहूर खानपान विशेषज्ञ और लेखक केटी अचाया ने अपनी किताब इंडियन फूड हिस्ट्री में देश के हर इलाकों के खानपान, कृषि और खानपान के इतिहास की बात की है. किताब में कहा गया है, 16वीं सदी में उत्तर प्रदेश के गंगा के किनारे के इलाकों में जो खाने लोकप्रिय थे, उसमें सत्तू, जौ का आटा ज्यादा प्रचलन में था, दालें खूब होती थीं. लिहाजा उनसे मुंगोड़ी और बड़ियां बनाई जाती थीं. इनका उपयोग सब्जियों के साथ होता था. किताब ये भी कहती है कि बेशक खांडवी को आजकल गुजरात का व्यंजन माना जाता है लेकिन असल में ये निकली पूर्वी यूपी और बिहार के ही इलाके से.
लोग आटे का हलवा बनाते थे. आटे और दूध को मिलाकर पतली पतली लिप्सी तैयार करते थे, चावल के आटे से बनने वाला लड़्डू खाया जाता था, जिसे चिरौटा कहा जाता था. हर मौसम में प्रचुर मात्रा में कई तरह की सीजनल सब्जियां, साग आदि पैदा होते थे.
मैं मुख्य तौर पर आज अपने ननिहाल और माता जी के हाथ से बनाए जाने वाले व्यंजनों के बारे में बताऊंगा. उससे पहले एक सदी पहले के एक अंग्रेज अफसर के डायरी के पन्ने की बात. उसने डायरी में बिहार के लोगों के खानपान की जानकारी दर्ज की थी. बकौल उसके, बिहार में लोग नियमित तौर पर खाने में चावल के साथ गेहूं, रागी और जौ के आटे की रोटियां खाते थे. जौ को चावल की जगह भी इस्तेमाल कर लिया जाता था.
चावल का खिरौरा, दही फुलवाड़ा और सत्तू का जलवा
जब इसे चावल की तरह पकाया जाता था तो इसे बॉथ कहते थे वहीं मुस्लिम इसे कुशका कहते थे. चावल के आटे को लड्डूओं की गोल बनाकर उबालकर खाया जाता था. इसे खिरौरा कहते थे. लाई, चिउड़ा और मक्के का दाना भूनकर लावा खाया जाता था. हर गांव में एक भड़भूजा जरूर होता था. त्योहारों में पूड़ी, खासतरह से फ्राई की गई दाल, दही में डला हुआ फुलवाड़ा खाया जाता था. अगर इस लिहाज से देखें तो एक सदी में इस पूरे इलाके में खानपान काफी बदल गया है. हालांकि सत्तू का जलवा बरकरार है. सत्तू को भी तरह तरह के व्यंजनों के रूप में खाया जाता है.
फरे, कोफ्ते और तरह-तरह की पकौड़ियां
अब मैं अपने ननिहाल और मां के हाथों से बनने वाले स्वादिष्ठ खाने की बात करता हूं. खाना अक्सर पुरानी यादों को जोड़ता है. लिस्ट लंबी है- लाजवाब लौकी, कटहल और करेले की सब्जियां, भरवे, लजीज स्पाइसी मटर कीमा यानि निमोना, मसालेदार पतली अरहर दाल वाली खिचड़ी, अंगुली की तरह चाटकर खाने वाली तहरी, फरे, कोफ्ते, तरह-तरह की पकौड़ियां और चटनी, मटर और कॉर्न के व्यंजन, बेसन, तेल और मसाले में साथ भुनने के बाद स्वाद की अलग रंगत देने वाली सब्जियां.
कैसे बनता था मीट, क्या थी प्रक्रिया
नानी कई तरह के मीट बनाती थीं. ननिहाल की रसोईं पहली मंजिल पर जहां थी, उसे दीवारें तीन ओर से घेरती थीं. एक हिस्सा छोटी छत की ओर खुला होता था. इस छोटी छत पर अक्सर दूसरा किचन तब सजता था, जब नानी मीट बनाती थीं. मीट को पहले अच्छी तरह पानी से साफ करके उसे कटे प्याज, नमक, हल्की हल्दी के अलावा करीब आधे से एक चम्मच सरसों के तेल के साथ उबाल लिया जाता था.
उबलने के बाद मीट को निकाल लिया जाता था और उबले पानी को अलग रख लिया जाता था. अब एक डेगची में सरसों तेल में ढेर सारा कटा हुआ प्याज छोड़ा जाता था. फिर जब प्याज गुलाबी होने का संकेत देता था तो प्याज-लहसुन के साथ मिलाकर पीसे गए खड़े मसालों के पेस्ट को डाला जाता था. आंच कुछ हल्की हो जाती थी. पेस्ट में देर तक भुनता रहता था. जब ये पूरा पेस्ट तेल छोड़ने लगता था तो मीट को मिलाया जाता था. ऊपर से ढक्कन लगा दिया जाता था.
कुछ देर बाद जब ये लगता था कि मसालों और मीट ने आपस गर्मागर्म दोस्ती कर ली है तो फिर उसमें अलग रखा गया मीट का उबला पानी मिला दिया जाता था. ये हल्की आंच में पकता रहता था. करीब 40-50 मिनट या कुछ और समय में तैयार हो जाता था. इसमें अगर सही समय सही मात्रा में दही मिला दें तो इसका स्वाद कुछ अलग मिलता था. अगर पानी नहीं डालें तो ये मीट अलग स्वाद लिए होता था.
कलेजी और मटन कीमा
नानी कलेजी, मटन कीमे के साथ अलग अलग डिशेज भी तैयार करती थीं. मछली कम बनती थी. जब बनती तो उसमें राई या सरसों का ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था.मटर कीमे और बेसन को मिलाकर कबाब तैयार कर लिया जाता था. ये सभी कुछ बनता था सरसों तेल में.
सरसों तेल का ही ज्यादा इस्तेमाल
आमतौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कायस्थ घरों में पहले खाना सरसों तेल में ही ज्यादा बनता था. जिसे कड़वा तेल भी कहा जाता था. 70 के दशक में तब पैंकिंग ब्रांड सरसों तेल कमोवेश नहीं के बराबर थे. तेलियों की दुकानें थीं. जहां सरसों को मशीन से प्रोसेस करके तेल निकलता था. मैं अक्सर शीशी या डिब्बा लेकर ननिहाल के पास की तेली की दुकान पर जाता था और जरूरी तेल लेकर आता था. वो अपनी कुप्पी और पैमाने से इसे देते थे. अक्सर गांव से नानी बोरे में सरसों की पैदावार लेकर लौटती थीं. जिसे किश्तों में पिराकर तेल लेकर आया जाता था. पता नहीं आप में से कितने लोगों ने इसे देखा होगा. लेकिन जब सरसों मशीन में पिसती और खल अलग होता है तो एक खास तरह की गंध आती है, जो नाक को बहुत अच्छी लगती है.
तब चिकन नहीं मीट ही रसोई पर राज करता था
आजकल के जमाने में चिकन की बहार ज्यादा है. तब मुझको याद नहीं कि कभी भी हमारे यहां चिकन बना हो. हां, मांसाहारी खाने के बर्तन जरूर पूरी तरह से अलग होते थे. उन्हें कतई मुख्य किचन के बर्तनों से मिक्स नहीं किया जाता था.
जाड़े के दो खास व्यंजन निमोना और घूघनी
शाकाहार में भी एक से बढ़कर एक व्यंजन थे. हरी मटन के सीजन में सबसे खास दो व्यंजन होते थे. एक निमोना और दूसरी घूघनी. ये जाड़ों में कायस्थों की रसोई में जरूर नियमित रूप से बनते थे. निमोना यानि यानि मटर कीमा. मटर को पीसा जाता है लेकिन इसमें इसके स्वाद को असल करारापन या तड़का बड़ियां देती हैं. ये मसालेदार सूखी बड़ियां कड़ाही पर गर्म सरसों तेल में सबसे पहले डाली जाती हैं. गर्म तेल के साथ तब तक भुनी जाती हैं, जब तक कि फ्राई होकर करारी ना हो जाएं. बड़ियों को कुछ लोग इसके बाद निकालकर अलग रख देते हैें
अब उसी सरसों तेल कटे हुए पतले प्याज और मसालों का पेस्ट मिलाकर फिर उन्हें तेल में तब तक आंच दी जाती है जब तक कि पूरा मसाला तेल को छोडऩे ना लगे. इस समय फ्राई बड़ियों को भी इसमें डाल दें. एक दो मिनट और भूनें. दरअसल तेल के साथ भुने जा रहे मसाले की ये परमानंद वाली स्थिति होती है यानि वो स्थिति जब मसाला सिद्धत्व को प्राप्त कर चुका है और असल कंटेट से मिलने को तैयार होता है. हालांकि इस प्रोसेस के अलग तरीके भी हैं.
अब इसमें पीसे हुई मटर का पेस्ट डालते हैं. आंच पर इन सबके तालमेल से भुनने-मिलने का सिलसिला तब तक चलता रहा है, जब तक एक खास खुशबु नहीं आने लगे. बस इसी समय में उसमें पानी मिलाते हैं. आंच हल्की की जाती है. इसे ढक दिया जाता है, ताकि भाप बाहर नहीं जाए. पाककला में पकती हुई सामग्री के साथ निकलती भाप को बाहर नहीं निकलने देने का भी एक मतलब होता है. कहा जाता है कि भाप जितना अंदर रहेगी. उतना ही बर्तन में अंदर उमड़-घुमड़कर स्वाद को और लजीज करेगी.
मेरा दावा है कि इस निमोना को अगर आप खाएंगे तो वाह-वाह किए बगैर रह ही नहीं सकते. चावल के साथ खाइए या रोटी के साथ-दोनों में ये बेहद स्वादिष्ट होगा. घरों में तो अब बड़ियां बनती नहीं लिहाजा बाजार में जो बड़ियां खरीद लाएं वो जरूर बेहतर क्वालिटी वाली हों. (जारी रहेगा)
साभार – जीवन शैली / न्यूज़ 18 हिंदी /कायस्थों का खान-पान 05
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