कायस्थों का खान-पान 04 : शामी कबाब और सींक कबाब ना हो तो लखनऊ के लालाओं का खाना कैसा

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हम आपको कायस्थों के खास खान-पान की रवायतों से रू-ब-रू करा रहे हैं. उनकी रसोई में बनने वाले खानों की विविधता और स्वाद की बात ही अलग रही है. आज की कड़ी में लखनऊ के कायस्थों के कबाब प्रेम और मांसाहारी खाने की चर्चा
पुराने लखनऊ की बात करें तो यहां कायस्थों का बड़ा रूतबा था. अवध के हर रंग में उनकी भूमिका
कायस्थ मांसाहारी खाने को बनाने के तौर तरीकों को शाकाहार की कसौटी पर जरूर कसते थे
कायस्थों के लिए ये जाड़े वाला सीजन बड़ा शानदार होता है. खाने को ज्यादा वैरायटी मिलती है
कायस्थ परिवारों में बकरे के गोश्त (मटन) के बिना कोई दावत नहीं हो सकती. मुगलों की तरह ही कायस्थों ने भी मटन से कई तरह के लजीज व्यंजन बनाए. उनके यहां चिकन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता था. मछली को कभी-कभार ही खाने में रखा जाता है. अधिकतर कायस्थ घरों में दो रसोई घर होते थे. एक शाकाहारी भोजन के लिए. दूसरा मांसाहारी भोजन के लिए. हम आज की कड़ी में जानेंगे लखनऊ के कायस्थों के मशहूर खान-पान के बारे में.
लखनऊ को नफासत और तहजीब की नगरी कहा जाता है. अगर आप कई शहरों में जीवन गुजार चुके हों. उसमें एक शहर लखनऊ भी हो तो आपसे बेहतर उस शहर को कौन समझ सकता है. पुराने शहर की पुरानी हवेलियों से लेकर पहनावा और बोली से लेकर खानपान तक में खास नफासत और अंदाज. वैसे लखनऊ ने अब भी काफी हद तक अपनी पुरानी बातों को बचाकर रखा है. कम से कम खानपान के मामले में.
चाहे लखनऊ के नान वेज की बात करिए या फिर चाट की या फिर हर सीजन के साथ रसोई में बनने वाले खाने और पकते हुए खाने के साथ आने वाले मसालों के गंध की. पुराने लखनऊ की बात करें तो यहां कायस्थों का बड़ा रूतबा था. अवध के हर रंग में उनकी भूमिका रही है.
अवध का मुख्यालय पहले फैजाबाद था. फिर 1775 में नवाब आसिफुद्दौला उसे लखनऊ ले आए. फिर लखनऊ में कल्चर से लेकर कुजीन यानि खानपान पर बहुत काम हुए. नदीम हसनैन की किताब “द अदर लखनऊ” कहती है कि जब अवध की राजधानी को नवाब आसिफुद्दौला लखनऊ लेकर आए तो एक कायस्थ को दीवान बनाया गया, जो बाद में उनका प्रधानमंत्री बना. इनका नाम था राजा टिकैत राय. उनके नाम पर अब भी लखनऊ से लेकर फैजाबाद तक कई जगहें हैं.
उन्होंने कई नए मंदिर, घाट, तालाब, मस्जिदें बनवाईं तो हिंदू महत्व की जगहों को रेनोवेट किया. टिकैत राय कायस्थ थे. खाने-पीने के शौकीन. दावत देने वाले. गीत-संगीत में आनंद लेने वाले. उनके और अन्य उच्च पदासीन कायस्थों की पाकशाला से कई व्यंजन निकले.
शामी कबाब और सींक कबाब के बगैर तो खाना ही नहीं होता था
मटन से तैयार होने वाले कई तरह के व्यंजन, शामी कबाब, सींक कबाब बेशक कायस्थों की किचन की भी शान थे. बगैर इसके उनका खाना ही नहीं होता था. वैसे लखनऊ को कबाब के कई तरह के इनोवेशन का क्रेडिट जाता है. कायस्थों की एक खास आदत थी वो अक्सर मांसाहारी खानों को बनाने के तौर तरीकों को शाकाहार की कसौटी पर जरूर कसते थे. जो रिजल्ट मिलते थे, वो नए व्यंजन की नींव रखते थे.
चने से बना मीट को मात देने वाला कबाब
जैसे लखनऊ ने मांसाहार में कई तरह के कबाब दिए उसी तरह लखनऊ के कायस्थों के जरिए कई तरह के शाकाहारी कबाव भी निकले. इसमें चने की दाल को भिगोकर पीसकर उसमें बेसन और मसालों को मिलाकर बनाया कबाब तो इतना लजीज होता है कि अक्सर मीट खाने वाले भी धोखा खा जाते हैं.
चने की दाल जब रातभर के बाद सुबह तक गल चुकी होती है, तो उसे हल्का सा उबाल दिया जाता है. इसके बाद उसे पीसते हैं. तब भुने हुए बेसन की हल्की मात्रा के साथ मसाले, नमक आदि मिलाकर टिक्की का शेप देकर हल्की आंच में तवे पर तेल और घी में धीरे धीरे सेंका जाता है तो लजीज वेज कबाब बनते हैं.
ये कई तरह के बनते हैं.इसमें सीजनल सब्जियों को शामिल किया जा सकता है. वैसे तो मटर और कटहल के कबाव का भी कोई जोड़ नहीं.
फिराक जो कबाब पर फिदा थे
रमेश द्विवेदी की किताब “जिक्र ए फिराक -यूं ही फिराक ने जिंदगी की बसर” में तो उनके कबाब पर फिदा होने की बात को काफी विस्तार से लिखा गया है. शराब और कबाब उनके प्रिय खानपान थे. वैसे वो थे भी कायस्थ ही-असली नाम था रघुपति सहाय
अवधी के कायस्थ व्यंजनों पर हिंदू-मुस्लिम दोनों असर हैं. आमतौर पर कायस्थ घरों की बहुत सी महिलाएं शाकाहारी थीं लेकिन वो लाजवाब मांसाहारी व्यंजन बनाया करती थीं, लेकिन मांस सरीखे स्वाद को उन्होंने शाकाहारी व्यंजनों में दाल और सब्जियों में भी उतारा.
लखनऊ के कायस्थों ने मांसाहारी खाने से ज्यादा दोस्ती की
स्वाद और रंगत में मांस जैसी बनाई गई सब्जियों में अगर नाम लिया जाए तो मूंग दाल की कलेजी या मछली की तरह पकाई गई अरबी का नाम लिया जा सकता है. हालांकि ये सही ही है कि लखनऊ के कायस्थों ने मांसाहारी खाने से ज्यादा दोस्ती की. दशहरे और होली की शाम कायस्थों के यहां खासतौर पर मीट पकाया जाता था.
लखनऊ में मेरे मकान मालिक अमर गौड़ यूं तो बैंक में अफसर थे लेकिन थे पक्के लखनवी. मीट तैयार करने में उनका कोई जवाब नहीं था. पहली बार मैने उनके मुंह से सुना कि जब भी बाजार जाइए तो गोल बोटी मीट लेकर आइए. जब इंदिरा नगर में एचएएल के सामने की बाजार में इसको लेने गया. गोल बूटी की डिमांड की तो मीट विक्रेता से अलग तरह से काट पीट करके गोश्त दिया. इसे खाने और पकाने दोनों का मजा अलग था.
मैने पहली बार लखनऊ में ही कायस्थों को करी, कोफ्ता और कबाब में गुलाब और केवड़े की सुंगध डालते देखा. लखनऊ में अब भी नौबस्ता, अमीनाबाद और पुराने लखनऊ के कई मोहल्लों में कुछ कायस्थ परंपरागत व्यंजनों को अपने रेस्तरां या होटलों में परोसते हैं. यहां कायस्थों के यहां बनने वाले बेहतरीन कोफ्ते, पसंदे, फरे और मीट खा सकते हैं.
कटहल से खास दोस्ती
ये भी कहूंगा लखनऊ के कायस्थों को कटहल खासतौर पर काफी पसंद है. जब कटहल का मौसम आता है तो इसकी सब्जियां राई से लेकर बेसन के साथ मिलाकर बनाई जाती हैं. कभी उन्हें उबालकर लजीज व्यंजन का रूप दे दिया जाता है तो कभी केवल तेल में मसालों के साथ स्टफ्ड करके.
अगर कटहल की सब्जी को खड़े मसालों के साथ पकाया जाए, तो अंतर करना मुश्किल हो जाता है कि ये शोरबे वाला मीट है या कटहल. मैने उबले कटहल की बेसन में बनी पकौड़ियां भी यहीं खाईं. कायस्थ महिलाओं ने खासतौर पर शाकाहार में ऐसी पाककला विकसित कर ली थी कि ये व्यंजन भी मीट को मात देते हुए लगें.
जाड़ों में खाने की टेबल और सजने लगती है
अनूठी विशाल अपनी किताब, “मिसेज एलसीज टेबल” में कहती हैं कि जाड़ों में लखनऊ में खाने का आनंद बढ़ जाता था.नवंबर में ज्यादातर डायनिंग टेबल पर पत्तीदार सब्जियां मसलन पालक, मेथी, मटर और गोभी के व्यंजन नाश्ते से लेकर लंच और डिनर तक में शोभा बनने लगते थे. गाजर के हलवे की महक आने लगती थी, जिसे खोवे के साथ पकाकर थाली में बिछाकर जब चौकोर काटा जाता था तो ये स्वादिष्ट मिष्ठान की जगह ले लेता था.
तिल और मावा मिलाकर मिठाई और लड्डू तैयार होते थे. तब कायस्थ घरों में कुकिंग सीजनल होती थी. हालांकि ये तो अब भी होता है. जाडे़ में खाने का तौर तरीका बिल्कुल बदल जाता है-खाना गरिष्ठ हो जाता है. कायस्थों के लिए ये जाड़े वाला सीजन बड़ा शानदार होता है. खाने को ज्यादा वैरायटी मिलती है और ज्यादा स्पाइसी डिशेज. जोड़ों में कायस्थों के घरों में इस मौसम में सत्पेता यानि कटे पालक के साथ बनाई गई अरहर या उड़द की दाल खासतौर पर बनने लगती है.
माना जाता है कि सत्पेता दाल और गोभी के व्यंजन कायस्थों की रसोई में कोलोनियल प्रभाव में आए. यही सीजन मुंगोड़ियों, बड़ियों के बनने का भी होता था. बहुत सी सीजनल सब्जियों को सूखाकर उसको आगे इस्तेमाल करने का भी. वैसा ये तो पक्का है कि अगर आप लखनऊ में हैं और किसी कायस्थ ने आपको दावत पर आमंत्रित किया है, उसे अगर ये मालूम चल गया कि आप मांसाहारी हैं तो आपकी थाली में वो बड़ी शान से इसके दो-तीन व्यंजन परोसकर मेहमानवाजी करेगा. (जारी है)

साभार – जीवन शैली / न्यूज़ 18 हिंदी /कायस्थों का खान-पान 04

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