कायस्थों का खानपान 02: कबाब से लेकर बिरयानी का नया अंदाज जो लालाओं की रसोई से निकला

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हमने कायस्थों के खानपान पर एक खास शोधपरक सीरीज शुरू की है. कायस्थों की रसोई वो जगह थी, जहां खानों को लेकर बहुत प्रयोग हुए. इस दूसरी कड़ी में कबाब, कोफ्तों से लेकर बिरयानी की बात.
कायस्थ मुगल दस्तरख्वान के ज्यादातर व्यंजनों को अपनी रसोई तक ले गए लेकिन अपने अंदाज और प्रयोगों के साथपिसी दाल का भरवां पराठा तो शुद्ध कायस्थ खानपान परंपरा से निकला बताया जाता है
बिरयानी में अगर मुगल दस्तरख्वान ने नए नए प्रयोग किए तो कायस्थों ने इसे शाकाहारी अंदाज में भी बदला 
चूंकि कायस्थ दरबारों में बड़े और अहम पदों पर थे लिहाजा मुगलिया दावत में आमंत्रित भी रहते थे. 1526 में बाबर ने जब भारत में मुगल वंश की नींव रखी तो अपने साथ मुगल दस्तख्वान भी भारत ले आया. तकरीबन सभी मुगलिया शासक खाने के बहुत शौकीन थे. जहांगीर तो अपनी डायरियों तक में खानपान का जिक्र करता था. अकबर के समय में उनके इतिहासकार अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी और अकबरनामा में उस दौर के खानपान का भरपूर जिक्र किया है. इब्ने बबूता ने भी अपने यात्रा वृतांत में भी इसका जिक्र किया है.
ये वो दौर था जब मुगल खानपान में ड्रायफ्रुट्स, किशमिश, मसालों और घी का भरपूर प्रयोग होता था. इसे वो अपने साथ यहां भी लाए थे. यानि कहा जा सकता है कि मुगल पाकशाला के साथ खानों की नई शैली और स्वाद भी आया था. ऐसा नहीं है कि भारत में ये सब चीजें होती नहीं थीं या इनका इस्तेमाल नहीं होता था लेकिन इन सारी ही खाद्य सामग्रियों को लेकर तमाम पाबंदियां और बातें थीं.
कायस्थों ने शाकाहार और मांसाहार दोनों का फ्यूजन किया
कायस्थ मुगल दस्तरख्वान के ज्यादातर व्यंजनों को अपनी रसोई तक ले गए लेकिन अपने अंदाज और प्रयोगों के साथ. फर्क ये था कि कायस्थों ने शाकाहार का भी बखूबी फ्यूजन किया. मांसाहार के साथ भी कायस्थों ने ये काम किया. कवाब से लेकर मीट और बिरयानी तक का बखूबी नया अंदाज कायस्थों की रसोई में मिलता रहा.
बिरयानी की भी रोचक कहानी है
बिरयानी की भी एक रोचक कहानी है. कहा जाता है कि एक बार मुमताज सेना की बैरक का दौरा करने गईं. वहां उन्होंने मुगल सैनिकों को कुछ कमजोर पाया. उन्होंने खानसामा से कहा कि ऐसी कोई स्पेशल डिश तैयार करें, जो चावल और मीट से मिलकर बनी हो, जिससे पर्याप्त पोषण मिले. जो डिश सामने आई, वो बिरयानी के रूप में थी. 
बिरयानी को नया रूप और जायका दिया
बिरयानी में अगर मुगल दस्तरख्वान ने नए नए प्रयोग किए तो कायस्थों ने बिरयानी के इस रूप को सब्जियों, मसालों के साथ शाकाहारी अंदाज में भी बदला. चावल को घी के साथ भुना गया. सब्जियों को फ्राई किया गया. फिर इन दोनों को मसाले के साथ मिलाकर पकाया गया, बस शानदार तहरी या पुलाव तैयार.
पिसी दाल के लजीज पराठे
अपने घरों में आप चाव से जो पराठे खाते हैं. वो बेशक मुगल ही भारत लेकर आए थे. दरअसल मुगलों की दावत में कायस्थों ने देखा कि फूली हुई रोटी की तरह मुगलिया दावत में एक ऐसी डिश पेश की गई, जिसमें अंदर मसालों में भुना मीट भरा था. इन फूली हुई रोटियों को धी से सेंका गया था. खाने में इसका स्वाद गजब का था. कायस्थों ने इस डिश को रसोई में जब आजमाया तो इसके अंदर आलू, मटर आदि भरा. ये कायस्थ ही थे. जिन्होंने उबले आलू, उबली हुई चने की दाल, पिसी हरी मटर को आटे की लोइयों के अंदर भरकर इसे बेला और सरसों तेल में सेंका तो लज्जतदार पराठा तैयार था.
हालांकि ये बहस का विषय हो सकता है कि पराठे पंजाब की देन हैं या नहीं. क्योंकि ये दावा उनका भी है कि भरवां पराठे उनकी देन हैं. लेकिन फूड हिस्टोरियन कहते हैं कि पराठे जैसा व्यंजन मुगलों की दौर में आया और लोकप्रिय होता गया. पिसी दाल का भरवां पराठा तो शुद्ध कायस्थ खानपान परंपरा से निकला बताया जाता है.
भारत में तेल का इस्तेमाल कब से
बात सरसों तेल और घी की चली है, तो ये भी बताता चलता हूं कि इन दोनों का इस्तेमाल भारतीय खाने में बेशक होता था लेकिन बहुत सीमित रूप में .मशहूर खानपान विशेषज्ञ केटी आचार्य की किताब “ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड” में कहा गया है कि चरक संहिता बताती है कि बरसात के मौसम में वेजिटेबल तेल का इस्तेमाल किया जाए तो वसंत में जानवरों की चर्बी से मिलने वाले घी का. हालांकि इन दोनों के ही खानपान में बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल की सलाह दी जाती थी. प्राचीन भारत में तिल का तेल फ्राई और कुकिंग में ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था. उस दौर में कहा जाता था कि गैर आर्य राजा जमकर घी-तेल का इस्तेमाल करते थे.प्राचीन काल में सुश्रुत मानते थे ज्यादा घी-तेल का इस्तेमाल पाचन में गड़बड़ी पैदा करता है. सुश्रुत ने जिन 16 खाद्य तेलों को इस्तेमाल के लिए चुना था, उसमें सरसों को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था. इसके चिकित्सीय उपयोग भी बहुत थे.
भारतीय खानपान में फ्यूजन का तड़का डाला
खाना अक्सर पुरानी यादों को जोड़ता है. खाना एक-दूसरे को जोड़ता है. खाना हमारे तौरतरीकों, लिहाज और परंपराओं को जाहिर करता है. कायस्थों का खाना भी ऐसा ही है. हम आज जो खाते-पीते हैं, वो कई कल्चर्स की देन है. ये विदेशी व्यापारियों, यात्रियों, बाहर की यात्रा पर गए हमारे लोगों के साथ मुगलिया और ब्रितानी राज की देन माना जाता है. हालांकि इतिहासकारों का मानना है कि जब ग्रीक हमलावर के तौर पर पश्चिमी सीमांत इलाकों तक आए तो उनके खानों का भी भारत में फ्यूजन हुआ. हर खाने, मसालों, सब्जियों, मिष्ठानों और पेय की अपनी कहानियां हैं. कहना चाहिए कि भारतीय खानपान में फ्यूजन का तड़का डालने का काम कायस्थों ने काफी कुछ किया.
कैसे समृद्ध हुई उनकी रसोई
कायस्थ पहले तो लंबे समय तक कई राज्यों और रियासतों के शासक रहे. मुगल और अंग्रेज राज आया तो उन्हें महत्वपूर्ण ओहदों और पोजिशन मिलीं. उनकी रसोई भी उसी तरह समृद्ध होती गई. उन्होंने तमाम खाने को नए रंग-रूप दिया.
राजस्थान से लेकर उत्तर भारत और बंगाल, असम से लेकर हैदराबाद तक फैले कायस्थों ने तमाम तरह खानों को विविधता दी. मुगल जब भारत आए तो वो ग्रेवी वाले खानों की बजाए स्टफ्ड खाना खाते थे. लेकिन उनके व्यंजनों को मांसाहार से लेकर शाकाहार में ग्रेवी के साथ मिश्रित करने का काम कायस्थों ने किया.
देश में ग्रेवी 2000 ईसापूर्व से बनाई रही जाती है
केटी आचार्या की किताब “ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड” कहती है, “वर्ष 1126 से 1138 तक हैदराबाद से 160 किलोमीटर दूर बीदर रियासत के राजा सोमेश्वर को मीट खाने का बहुत शौक था. मीट को हल्दी, लहसुन के पेस्ट के साथ मेरीनेट करने का काम उसी ने शुरू करवाया था. राजा सोमेश्वर काफी विद्वान था. उसने तब 100 अध्यायों की एक किताब लिखी थी, जिसमें प्रशासन से लेकर ज्योतिष और पाक कला के बारे में लिखा गया था. सोमेश्वर मछली, क्रैब और भेड़ (पोर्क भी) को भुनवाता और सरसों तेल से उन्हें फ्राई कराता था. हालांकि मैं साफ कर दूं कि भारत में मसालेदार करी या ग्रेवी का इतिहास ईसा से 2000 साल पहले मिलता है.
कोफ्ते से लेकर हलवा के देशीकरण तक
मैं कायस्थ कुजीन पर किताब” मिसेज एलजी टेबल” लिखने वाली अनूठी विशाल का एक इंटरव्यू पढ़ रहा था, जिसमें उन्होंने बताया कि किस तरह कायस्थों ने कोफ्ते और अन्य व्यंजनों को ग्रेवी से जोड़ा. फिर बिरयानी, कबाब, कोफ्ता और हलवा जैसे व्यंजनों का देशीकरण करने के ना जाने कितने तरीके अपनाए. इनके विविध रूप और कैसे आते चले गए.हलवा मूल रूप से फारस की देन है. 07वीं शताब्दी में इसका पहली बार जब जिक्र हुआ तो इसे हलवन कहा जाता था. फिर 09 सदी में इसे खजूर और दूध मिलाकर बनाने का उल्लेख मिलता है. लेकिन जब ये मुगलों के साथ भारत आय़ा तो इसे आटा से लेकर सूजी, बेसन, मूंग दाल, आलू, कद्दू, शकरकंदी और कई तरह के ड्राइफ्रूट्स, दूध मिलाकर बनाया गया. जिसमें कायस्थों ने खास भूमिका अदा की.इसमें सामग्री को भूनने, घी, तेल और पानी की संतुलित मात्रा में मिलाने के साथ उचित समय पर दूध मिलाने का पूरा खास तरीका था. तब आजकल की तरह गैस के चूल्हे नहीं थे. तब आमतौर पर लकड़ी के चूल्हों का इस्तेमाल होता था. इन चूल्हों में तापमान को नियंत्रित करने के अपने तौरतरीके थे. पीतल और कांसे के बर्तनों के साथ मिट्टी के बर्तनों का अपना महत्व था. (जारी है)

साभार – जीवन शैली / न्यूज़ 18 हिंदी /कायस्थों का खान-पान 02

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