पढ़िए अंतर्राष्ट्रीय कायस्थ महिला काव्य मंच पर वरिष्ठ लेखिका उषा सक्सेना की कलम से आलेख :- बुंदेली भाषा का उद्भव और विकास

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बुंदेली भाषा का उद्भव और विकास :-
भारत के मध्य क्षेत्र में स्थित बुंदेल खंड के विंध्य-क्षेत्र में बोली जाने वाली इस भाषा का नाम बुंदेली है ।जो की अपने प्राचीन काल से बोली जा रही है।अपने ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे और अपने रस मे सराबोर करने वाले हैं ।अन्य भाषाओं की तरह बुंदेली भाषा की जननी भी संस्कृत है। वैदिक काल से चली आरही संस्कृत जब अपने उच्चरण की कठिनता के कारण जब केवल देवभाषा ही बनकर रहगई तो जन जन के बीच से उसके अपभ्रंश के रूप में प्राकृत भाषा का जन्म हुआ ।समय के परिवर्तन के साथ प्राकृत भाषा अपभ्रंश होकर जब पाली भाषा में बदल गई तो इसमें देशज शब्दों की बहुलता हो जाने से ही क्षेत्रीय बिशेष की भाषा बन गई ।विंध्य क्षेत्र बुंदेलखंड का अपना एक इतिहास है ‌यह अपने जन्म से ही चंद्रवंशी चंदेलों से जुड़ा रहा पहले इसका नाम चेदि दशार्ण एवं कारुष था।पर्वतीय शुष्क वन्य क्षेत्र होने से यहाॅं के जंगलों में अनेक जनजातियों का निवास रहा।जिनमें कोल,किरात,निषाद ,नाग ,पुलिंद एवं गौड़ जातियाॅं प्रमुख थी। जिनके अपने कबीले थे और प्रकारांतर से सभी की अभिव्यक्ति की भाषायें भी अपनी अलग अलग थीं।भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में सर्वप्रथम बुंदेली भाषा के शब्दोंका खुलकर प्रयोग हुआ । बुंदेली भाषा का जन्म पश्चिम की प्राकृत शौरसेनी और संस्कृत से माना जाता है ।मध्यदेश की भाषा होने से बुंदेली भाषा का अपना वर्चस्व रहा ।
बुंदेली भाषा की अपनी विशेषता में इसकी अपनी प्रकृति चाल वाक्य विन्यास और शैली है। भवभूति के उत्तर रामचरितम् में ग्रामीण जनों की भाषा विंध्येली अर्थात बुंदेली ही थी । अपनी भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं के बावजूद बुंदेलखंडमें जो समरसता और एकता है उसके कारण यह क्षेत्र आज भी अनूठा है । बुंदेलखंड का पहले नाम जैजाकभुक्ति था जिसे जुझौतिखंड के नाम से भी जाना जाता है ।
बुंदेली का प्रारम्भिककाल :-940से990 ई.
चंदेल नरेश गण्डदेव 940 से 990ई.तथा उसके बाद उनके उत्तराधिकारी विद्याधर के समय यह अपने प्रारम्भिक काल में थी जो धीरे धीरे विकसित होकर रासो काव्य धारा की भाषा बनी ।राजकवि जगनिक का आल्हा खण्ड बुंदेली में ही लिखा गया । इसके अतिरिक्त चंदबरदाई ने भी उसी समय समकालीन होने से पृथ्वीराज चौहान की प्रशंसा में पृथ्वीराज रासो लिखा । आल्हा खण्ड तथा परिमाल रासौ वीर रस की बुंदेली भाषा की परिपक्व प्रौढ़ता की रचनायें हैं ।जो आज भी गाईजाती हैं ।बुंदेली भाषा के कवियों में उस समय के बहुत से प्रसिद्ध कवि हुये।बुंदेली भाषा में अवधी और ब्रज भाषा के भी कुछ शब्द है।बुंदेली भाषा इस प्रकार से अति प्राचीन होते हुये भी उसके अपने पिछड़ा क्षेत्र होने के कारण साहित्य और इतिहास में वह स्थान प्राप्त नही हुआ जो उसे प्राप्त होना चाहिये था।
व्याकरण की दृष्टि से
बुंदेली भाषा का बुनियादी शब्द भण्डार और व्याकरण अपने समाज की भाषा संबंधी हर उन आवश्यताओं की पूर्ति करता है जो उनके विकास के लिये चाहिये। बुंदेली ध्वनि में 10स्वर और 27व्यंजन है । देवनागरी के 160अक्षर इसमें नही है । इन 10स्वरों का उच्चारण हिन्दी साहित्य से अलग है ।750मूल शब्दों में से बमुश्किल 50शब्द ही दोनों भाषाओं में समान होंगे । इसमें अधिकांशत:अधिक शब्दों को खींचकर समानतायें पाई जा सकती हैं । बुंदेली में क्रिया भी मूलरूप से भिन्न है ।इसके संज्ञा सर्वनाम क्रिया आदि मूल रूप से संक्षिप्त शब्द हैं।
बुंदेली भाषा जीवंत वैज्ञानिक भाषा है जिसका अपना शब्द कोश है।प्राचीन काल में बुंदेली भाषा में शासकीय पत्र व्यवहार संदेश,बीजक ,राजपत्र और संधियों के अभिलेख प्रचुर मात्रा मेंमिलते हैं जो इस बात के साक्षी हैं कि बुंदेली भाषा का अपना ही वर्चस्व है ।
उषा सक्सेना-भोपाल, 9993372655
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