पढ़िए अंतर्राष्ट्रीय कायस्थ काव्य मंच पर ऋतु खरे की रचना पिता और पंचतत्व

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पिता और पंचतत्व

आज का दिन है अद्भुत सा,
कुछ जीवित कुछ मृत सा,
प्राण का हर मूल तत्व लगे
कुछ विष कुछ अमृत सा,
जलता बुझता सा दिखा
जब घनी छांव सा वह हाथ,
जीवन की लाख स्मृतियां
ज्वलंत हो गई एक साथ।

सातवें आसमाँ की नीलिमा में बसा
मेरा स्वर्ग से सुन्दर बचपन,
गगनचुंबी इमारत सा लगता
अनंत छूट का वह बिन खूंट आँगन,

आज भी आँगन में उड़ती दिखे वह
गोदी से उछलती हुई हवा की सवारी,
मिले थे अनगिनत इंद्रधनुषी पंख
और मैं थी हवामहल की राजकुमारी।

पंख से अधिक मिली थी जड़ें
वह भूमि पे रहने का सादापन,
आज भी सत्कारे वह काठ का गुड़िया घर
और उसमे सजे माटी के बर्तन,

बर्तन से याद आये वह घाट घाट के जलपान
बिन पतवार की थीं कितनी नदियाँ पार,
मानो संग था कोई सेतु
बांधे कितने गांव कितने परिवार।

उस सेतु में ज्वलित छोटे शहर की बड़ी तपस्या,
बिटिया को आगे पढ़ाने की,
देती रही मुझे एक आँच एक अग्नि
सीमाओं से बड़े स्वप्न सजाने की।

आज का दिन है अद्भुत सा
है पिता का अंतिम संस्कार,
इन अर्चित पुष्पों में दिखे
वह बिन मांगे मिले मनचाहे उपहार,
इस तिलक के आरोह से स्मृत होता
वह मेरे हर गुण का गुणा कर जाना,
इस वस्र की श्वेतता से सुधता
वह मेरी हर भूल को क्षण में क्षमा कर जाना,
इन चरणों में बंधी सुतली में दिखी
वह संक्रांति की पतंग की डोरी,
राम नाम सत्य है की गूँज में
फिर सुनाई दी वह बचपन की लोरी।

आज पिता के साथ
भस्म हुआ वह निःशर्त लाड़,
ध्वस्त हुई वह बेटी
राख हुआ वह असीम दुलार,
क्षण भर में हुई
राजकुमारी से भिक्षिका
कर रही अंतिम बिदाई
वह कल्पना से कठिन कपाल क्रिया
सौंप रही उन्हीं  पंचतत्वों को,
अंततः सीख रही पुत्री धरम
कोई आँच न आये यही याचना
मिले चरम मोक्ष शांति परम।

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