ये हरे वृक्ष
यह नई लता
खुलती कोंपल
यह बंद फलों की कलियाँ सब
खुलने को, खिलने को, झुकने को होतीं
स्वयं धरा पर।
धूल उड़ रही,
धूल बढ़ रही,
जबरन रोकेगी यह राह
अपनी धाक जमा कर
ज़ोर जमा कर आँधी।
तोड़ रही कुछ हरे वृक्ष
सब नई लता—
ये परवश हैं
इस धरती की बात रही यह
कहीं उगा दे
ऊँचे पर, नीचे पर, पत्थर परपानी में।
ये उपकारी हरे वृक्ष
यह नई लता
खुलती कोंपल
खुलने पर, खिलने पर, पकने पर
झुक जाएँगी स्वयं धरा पर
फिर से उगने को कल
नए रूप में।
रचनाकार : शकुंत माथुर – दिल्ली
Post Views: 274