पढ़िए अंतर्राष्ट्रीय कायस्थ काव्य मंच पर प्रिया सिन्हा की रचना एक बेटी ऐसी भी..

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एक बेटी ऐसी भी..

कुछ सपनों को लिए आंखों में
दो वक्त की रोटी कमाने
निकल चली थी घर से
गरीब मां बाप की बेटी हूं साहब
यह सोच समझ के…

जा बेटी कुछ कमा कर लाना
हम गरीब मां-बाप को
दो जून की रोटी खिलाना..

यह कह अपने मेरे घर से विदाई दे दिए
क्या पता था उनको कि
वह मुझे सरेआम ही बेच दिए..

आंखों में उनके भी सपने
बेटी मेरी पाल, पेट को मेरे
अपना कर्त्तव्य निभाएगी
कहां पता था मुझे भी
कि मैं ही नष्ट हो जाऊंगी…

ना हाथ में पैसे ना टिकट हाथों में
भरोसे किसी और के बैठ गई
किसी बस या  फिर किसी ट्रेन में..

कहने को तो पूरा आसमान सा
स्वप्न  लिए आंखों में
निकल चली मैं घर से
हाथ में बस एक गठरी
और पुरानी चप्पल पैरों में…

बचपन का एक बड़ा हिस्सा
मैं अपने घर छोड़ आई
अब क्या होगा आगे
बस यह.. ना जान पाई…

कदम पड़ी मेरी उस धरती पर
जहां से मेरी जिंदगी का
रुख हीं मुड़ चला
बस कुछ ही घंटों में
मेरे सपनों का महल चकनाचूर हो चला..

पहुंच गई थी उस दुनिया में
जहां अंधेरों और गुमनामी के सिवा कुछ नहीं
मेरी जैसी सुदूर गांव,गरीब घरों की
और भी बच्चियां थी कई…

देख सभी की आंखों में
बेबसी और लाचारी
क्या ??अब मेरी बारी..

सिहर रहा था तन बदन मेरा
क्या होगा अब आगे
यह सोच कांप उठा था दिल मेरा
यही हाल मेरा भी होगा आगे ?.

वापसी की हर दीवार सख्त हो चली
हाय हम सब बच्चियां
यह सोच तिल तिल मर रही..

तितली की तरह इधर-उधर मंडराती थी अपने बाबुल के घर आंगन में
अब कुछ अनजाने, खौफनाक चेहरे
मंडरा रहे हमारे जिस्म नोंचने में…

कितनी दुलार से मां ने पाला था हमें
श्रृंगार_पटार कर सजाया था हमें
खुश होती थी देख कभी
शीशे में अपने चेहरे को
आज लज्जित हुई जा रही
और छुपा रही हथेलियों से आज
उसी चेहरे को.…

विदा किया था मां ने ऐसे मुझे
जैसे मेरी आखरी विदाई हो
क्या पता था तब, हम गरीब बेटी की
सच में होती, ऐसी ही विदाई हो…

अनजान शहर,अनजान गली
ना कोई अपना वहां
मैं रह गई बिल्कुल अकेली..

आज यहां तो कल वहां
कभी इस कमरे तो कभी उस कमरे तक हर दिन पहुंचाई जाती
झपट रहे सब भूखे बनकर
और मैं आहार सबकी बन जाती…

कभी गांव में सूरज की पहली किरण देखकर
कितना मैं मचलती
आज अंधेरी कोठरी में
मरी हुई रोशनी से आंखें नहीं खुलती..

मन करता कभी की भाग चलूं
और तोड़ डालूं इस बंधन को
पर अब हिम्मत ही कहां बची..

कोशिश भी किया कभी
फोन किया भी घर पर
सुन मेरी व्यथा उस मां-बाप ने
कह दिया अब खा जहर, मर वहीं पर…

हाथ ना बचपन रहा
ना घर रहा
जवानी भी लुट गई, हाथों गैरों के
अपने भी हाथ खड़ा कर दिए
जिनके भरोसे मैं आई थी
घर बार सब छोड़ के..

अब क्या रह गई मैं?
क्या रहा सपना मेरा?
सब छूट गया पीछे
जो था कभी अपना…

अब अपना कुछ नहीं
जीती रहूंगी जिंदा लाश बन
बस गैरों के लिए
मर भी जाऊं तो कौन याद करेगा
और कौन रहा अब मेरे लिए…

यही कहानी शेष रह गई
अंत का कुछ पता नहीं
बच भी गई तो प्राण रहेगा जिंदा
आत्मा तो कब की मर गई …

हाय मैं क्यूं बाबुल का घर छोड़
यहां पर आई ।

प्रिया सिन्हा
रांची, झारखंड

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