हमने कायस्थों के खानपान पर एक खास शोधपरक सीरीज शुरू की है. दरअसल कायस्थों की रसोई वो जगह थी, जहां खानों को लेकर बहुत प्रयोग हुए. इस तीसरी कड़ी में कायस्थों के घरों में बनने वाले लजीज गोश्त और दूसरे व्यंजनों की बात
राजस्थान के कुछ माथुर दिल्ली आकर बसे. जिन्होंने कायस्थ खानपान से
राजधानी को परिचित कराया
अरहर और उड़द की दाल में एक – एक दाना अलग अलग नजर आता था
माथुरों ने बकरे के मांग और जिगर की तर्ज पर शाकाहारी व्यंजन तैयार
किए
अक्सर पुराने लोग ये कहते मिल जाएंगे कि जो बात पत्थर के सिलबट्टों पर पीसे मसालों और चूल्हे की आंच में बने खानों के साथ खड़े मसालों के इस्तेमाल में होती थी, वो अब कहां. अब तो सब रेडीमेड है, लिहाजा वो स्वाद आ ही नहीं पाता, जो पहले खाने में आता था. तब किचन के अप्लाएंसेस अलग थे और अब अलग. कायस्थों की रसोई में तब वो सारे पुराने अप्लाएंसेस जरूर होते थे.
किचन में तब आजकल की तरह ज्यादा उपकरण नहीं थे. मसालों की पिसाई सिलबट्टों पर होती थी. सील को समय-समय पर छेनी से टांका जाता था. इसका अलग विज्ञान था. ताकि उस पर मसाला पुख्ता तरीके से पिसा जा सके. लोहे से लेकर पत्थर के खल-मूसर थे, जिसमें खड़े मसाले से लेकर नमक, गुड़ और अन्य खानपान की सामग्रियों को कूटा जाता था.
रोज हाथ की पत्थर की चक्की का इस्तेमाल होता था. हर रसोई में कम से कम पत्थर के बने ये उपकरण होते ही होते थे. दूध और अन्य सामग्रियों को ओटने के लिए बड़ी-बड़ी मथनियां हुआ करती थींं. पानी मिट्टी के घड़ों से लेकर पीतल और कांसे के पात्रों में रखा जाता था. तेल और घी को आमतौर पर चीनी मिट्टी के मर्तबान में रखा जाता था.
कायस्थ खान-पान में ये सब इसलिए कर पाए, क्योंकि हिंदू जाति संरचना के बीच एक ऐसे वर्ग के तौर पर उभरे थे, जो अपने परिवेश से लेकर खानपान, रहन-सहन और कल्चर को लेकर काफी लिबरल और प्रयोगवादी दृष्टिकोण के थे. अक्सर वो उलाहनाओं का भी शिकार हुए. हालांकि ये इस लेख का विषय नहीं है.
कहा जाता है कि जिन दिनों अंग्रेजों के जमाने में दिल्ली देश की राजधानी के तौर पर एक बड़ा शहर बन रहा था,तब राजस्थान के कुछ माथुर यहां आकर बसे. जिन्होंने कायस्थ खानपान से दिल्ली को परिचित कराया.
तब दिल्ली के कायस्थ घरों में उम्दा खाना बनता था
महेश्वर दयाल की किताब “दिल्ली जो एक शहर था” में कहा गया, “दिल्ली के कायस्थ घरों में बड़ा उम्दा खाना बनता था. दिल्ली के माथुर कायस्थों के यहां गोश्त की एक किस्म बड़ी स्वादिष्ट बनती थी, जिसे शब देग कहा जाता था. गोश्त को कई सब्जियों में मिलाकर और उसके अंदर कई खास मसाले डालकर घंटे घीमी आंच पर पकाया जाता था. मछली के कोफ्ते और अदले, पसंदे रोज खाए जाते थे.”
आगे बढ़ने के पहले शब देग के बारे में जान लेते हैं. कहा जाता है ये कश्मीरी व्यंजन है, जिसे कश्मीरी कायस्थों ने अपने तरीके से इनोवेट किया. कायस्थों का इतिहास कहता है कि शुरुआती सदियों में कश्मीर की कई रियासतों और राज्यों में कायस्थ राजा हुए. एक जमाने में कायस्थों की कुछ ब्रांचेज कश्मीर में रहा करती थीं. तब खान पान पर भी काफी काम हुआ.
शब देग रात भर धीमी आंच में पकने वाला कोफ्ता करी व्यंजन
शब देग एक पारंपरिक कश्मीरी कोफ्ता करी व्यंजन है जिसे कोयले की आग पर भारी तले वाले देग या हांडी में शलजम के साथ पकाया जाता है. अब तो ये रेसिपी भूली बिसरी बात जरूर हो गई है लेकिन कुछ कायस्थ घरों और कश्मीरियों ने संभालकर रखा है. परंपरागत रूप से शब देग को धीमी गति से पकाने की विधि से पकाया जाता था, जहां एक बड़े देग को सभी सामग्रियों के साथ आग पर रखा जाता था. रात भर पकने के लिए छोड़ दिया जाता था. आमतौर पर चावल, नान या शीरमाल के साथ परोसा जाने वाला यह व्यंजन हर तरह से समृद्ध है. इसे खास कश्मीरी कोफ्ता करी व्यंजन भी कह सकते हैं.
वो कहावत ‘ये मुंह और मसूर की दाल’ क्या कायस्थों की लजीज दाल से निकली
महेश्वर दयाल की किताब कहती है, “कायस्थों के घरों में अरहर, उड़द और मसूर की दाल भी बहुत उम्दा बनती थी. अरहर और उड़द की दाल में एक – एक दाना अलग अलग नजर आता था. कायस्थ घरों में बेसन के टके-पीसे भी सब्जी के तौर पर बनाए जाते थे. बेसन का एक गोल रोल सा तैयार करके उसे उबालकर उसके गोल-गोल रोल सा तैयार करके उसके गोल-गोल टके पीसे काटकर उसकी रसेदार सब्जी बनाते थे. उसे इतना स्वादिष्ट समझा जाता था कि यहीं से वो कहावत मशहूर हुई, ये मुंह और मसूर की दाल.”
दाल की कलेजी और दाल का कीमा
किताब “दिल्ली का असली खाना” में प्रीति नारायण का कहना है, “माथुरों ने बकरे के मांग और जिगर की तर्ज पर शाकाहारी व्यंजन तैयार किए. दाल को भिगोकर उसकी पीठी तैयार की जाती थी, जिससे दाल की कलेजी और दाल का कीमा बनाया जाता था. किसी भी सब्जी से कोफ्ते तो कच्चे हरे केले से केले का पसंदा बनाया जाता था.”
आलू के कुल्ले और मटन कोफ्ता
विनोद दुआ के खान-पान से संबंधित एक टीवी प्रोग्राम में मैने देखा कि उन्होंने दिल्ली के सिविल लाइंस में रहने वाले माथुर कायस्थों की पाकशाला आनंद लेते हुए उन्होंने उनके कई खास व्यंजनों की नुमाइश की. जिसमें आलू के कुल्ले (स्टफ्ड आलू), शामी कबाब, मटन कोफ्ता और चने की दाल के व्यंजन थे.
कायस्थ और मुस्लिम ही ज्यादातर मांसाहारी खाना खाते थे
“दिल्ली शहर दर शहर” पुस्तक में निर्मला जैन लिखती हैं, “दिल्ली में कुछ जातियों को छोड़कर बहुसंख्या शाकाहारी जनता की ही थी, इसलिए अधिक घालमेल उन्हीं व्यंजनों में हुआ. मांसाहारी समुदायों में प्रमुखता मुस्लिम और कायस्थ परिवारों की थी. विभाजन के बाद सिख और पंजाब से आनेवाले दूसरे समुदायों के लोग भी बड़ी संख्या में इनमें शामिल हुए. सामिष भोजन के ठिकाने मुख्य रूप से कायस्थ और मुस्लिम परिवारों में या जामा मस्जिद के आसपास के गली-बाजारों तक सीमित थे.”
कुछ कायस्थों ने पुरानी दिल्ली में होटल भी खोले
दिल्ली के खास जानकार और नवभारत टाइम्स में लगातार दिल्ली के बारे में कॉलम लिखने वाले विवेक शुक्ला ने मुझको बताया,” दिल्ली में अब भी माथुर कायस्थों की भरमार है. लगभग सभी non वेज खाते हैं.” मेरे एक और दिवंगत मित्र संजीव माथुर ने बताया, “मेरे नाना का पुरानी दिल्ली में आज़ादी के समय प्रसिद्ध होटल था. जिसकी यादों के तार भगतसिंह, चंद्र शेखर आजाद,आई एन ए, बाबा साहेब आदि से जुड़े हैं. यही नहीं खान पान और परंपराओं के आपसी रिश्तों पर भी काफी कुछ है”
ताहिरी, टके पैसे और मसरंग
कायस्थों के खान-पान पर प्रतिक्रिया देते हुए रंजना सक्सेना ने कहा, “मैं भी कायस्थ हूं वो भी पुरानी दिल्ली से. आज भी हम अपनी कायस्थ हवेलियों के खाने और कल्चर का लुत्फ उठा रहे हैं. जैसे ताहिरी, टके पैसे, कीमा कोफ्ता, मसरंगी और जच्चा के लिए बनाया जाने वाला हरीरा भी.” (जारी रहेगा)
साभार – जीवन शैली / न्यूज़ 18 हिंदी /कायस्थों का खान-पान 03
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