दस महीने बाद माँ के घर ..मेरा देवघर
झुके झुके आ रहे अमलतास के फूल
ट्रेन की खिड़की से
विह्ल नजरों से ताक रहे,
सिन्दूरी आभा लिए उतर रही है वही साँवली पहाड़न शाम
आज कितनी उदास !
नीले गगन में छितराये हैें बौराये से केसरिया बादल
जसीडीह में उतरना मन को निचोड़ रहा आज
मेरा देवघर है सूना चुपचाप..
जसीडीह से देवघर के सात किलोमीटर
सात जन्मों तक न तय हो काश !!
अंततः
घर के सामने हूँ डबडबाया मन लिए
भरी हैं मेरी आँखें और घर की बाहें खुली हैँ ..
घर की देहरी को ज्यों चूमा मैंने
पांवदान की धूल लिपट पड़ी मुझसे
उस रास्ते ही तुम्हारे कदम घर के भीतर जाते थे
तुम्हारे हर कदम का ताल हमारे लिए मंदिर की झंकार
धूल का हर कण मस्तक पर लिपटा रही
दस महीने बाद घर में पदार्पण कर रही माँ
तुम्हारे बगैर!
दीवारें जंगले पर्दे किवाड़ सभी बोलने लगे
ज्यादा और ज्यादा…
जैसे अपनी जिम्मेदारी निभा रहे क्योंकि
तुम थी चुपचाप …
व्याकुल मैं देख रही
तुम्हारा खाली पलंग, तकिया, ओढ़ना और घड़ी
करीने से सजे सब पर कितने चुपचाप
तुम कहाँ हो माँ !
कहाँ हो तुम!!
कैसे कहूँ अपना अंतर्नाद!!!
दस महीने पूरे दस महीने बाद
अपने शहर में पदार्पण
कदमों को जकड़ रखा किसी तरह
पर कितने दिन…
सूने मन में
भोर उतर आई
भाईयों के चेहरों में
कहीं
तुम दिखी बसी हुई!
घर भी पहने बैठा है
तुम्हारे आंचल का लिए विस्तार..
…….तुम्हारी गुड्डो (रानी सुमिता)
1 thought on “पढ़िए अंतर्राष्ट्रीय कायस्थ काव्य मंच पर दस महीने बाद माँ के घर ..मेरा देवघर – रानी सुमिता”
बहुत मार्मिक एवं भावनात्मक उद्गार मां के लिए बेटी के शब्दों में, सहीं है मां हीं से मायका , मां हीं मायका की आधार, मां की अभाव तो खलती हीं है मायका में। उनके नहीं रहने पर ।मैं रानी सुमिता जी को इस कविता को हम तक पहुंचाने के लिए धन्यवाद देती हूं ।