जानिए, क्‍यों होती है चित्रगुप्‍त पूजा; कैसे हुआ कायस्थों का उद्भव, क्‍या है इनका प्रभाव

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वर्ण व्यवस्था के इतर काम, हुनर, भाषा, सहिष्णुता और प्रगतिशीलता के आधार पर एक नई जाति अस्तित्व में आई जिसे भारतीय संदर्भ में कायस्‍थ का नाम दिया गया।
रांची, प्रवीण प्रियदर्शी। भारतीय समाज संरचना को जो स्थायित्व वैदिक काल में मिला था उसे उत्तर वैदिक काल आते-आते कई चुनौतियों से मुखातिब होना पड़ रहा था। नये उद्योगधंधों और आर्थिक कार्य व्यवहार ने सामाजिक संरचना में परिवर्तन की शर्त रख दी, तो लगातार मजबूत होते राजतंत्रीय व्यवस्था के सामने अपने आर्थिक और प्रशासनिक मामलों का रिकार्ड रखना भी जरूरी हो गया।

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गौतम बुद्ध, भगवान महावीर जैसे विचारकों ने वैदिक दर्शन को चुनौती देते हुए सामाजिक पुनर्संरचना को अहम मुद्दा बना दिया। मगध साम्राज्य के विस्तार और मौर्यो के विस्तृत नौकरशाही में लेखा और आकड़ों का संचयन बेहद महत्वपूर्ण हो गया था। इसी काल खंड के पौराणिक ग्रंथों, स्मृति व साहित्यिक ग्रंथों में लेखकीय कार्य के लिए एक नई जाति ‘कायस्थ’ का वर्णन मिलना प्रारंभ होता है।

भारतीय समाज व्यवस्था में नई हलचल कायस्थों का उद्भव भारतीय इतिहास में एक अजब कहानी है। इसने भारतीय समाज व्यवस्था में एक नई हलचल पैदा कर दी। वर्ण व्यवस्था के इतर महज काम, हुनर, भाषा, सहिष्णुता और प्रगतिशीलता के आधार पर एक नई जाति ही अस्तित्व में आ गई। यह भारतीय संदर्भ में बिना औद्योगिक क्रांति के एक मध्यम वर्ग के उद्भव की गाथा है।

इतिहासकारों में कायस्थों की उत्पत्ति को लेकर विभिन्न मत हैं। कुछ विद्वान इन्हें विदेशी खासकर तुर्किश, कुर्द मूल का बताते हैं। इस संदर्भ में सबसे मजबूत तर्क कल्हण के राजतरंगिनी में मिलता है जिसमें कारकोटा राजवंश के राजकुमार का तुर्की व्यवसायी की पुत्री से विवाह का उल्लेख है। वहीं सक्सेना को कुछ इतिहासकार शकों की सेना के रूप में स्थापित करते हैं।

श्रीवास्तव का उद्भव कुछ इतिहासकार कश्मीर के श्वात घाटी से बताते हैं। इन्हें भी शक, कुषाण मूल का माना जाता है। कुछ विद्वान इन्हें सिंधू घाटी सभ्यता के संघर्ष में बचे मृतकों के बच्चे मानते हैं। इसके पक्ष में तर्क गरुड़ पुराण के श्लोक में तलाशा जाता है जिसमें चित्रगुप्त को वेदाक्षरदायक: बताया गया है। विद्वानों का तर्क है सिंधू घाटी में लिखने की कला थी लेकिन आर्य इससे अनभिज्ञ थे।

माना जाता है कि जब आर्यो के संघर्ष का रोष कम हुआ तो स्रुति को कायस्थों ने लिपिबद्ध किया। ये सिद्धांत परशुराम पराक्रम के सिद्धांत से भी मेल खाता है। जिक्र आता है जब परशुराम श्रत्रियों का नाश कर रहे थे भद्रसेन अपनी गर्भवती पत्‍‌नी को लेकर ऋषि तालाव्य के आश्रम में शरणागत हो गए। ऋषि ने उनके शरणागत होने की बात कहते हुए परशुराम को सौंपने से मना कर दिया।

इसपर परशुराम ने शर्त रखी की महिला अगर पुत्र को जन्म देती है तो उसे श्रत्रिय कार्य से विमुख रख लेखन कार्य कराया जाए। वहीं औशनस स्मृति, व्यास स्मृति इन्हें ब्राहमण और जारकर्म करने वाली महिलाओं का संतति बताते हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति इन्हें चोर-डाकुओं से भी खतरनाक बताते हुए राजा को प्रजा की विशेष सुरक्षा की व्यवस्था का आदेश देता है। पद्म पुराण में ब्रह्मा के काया से उत्पन्न बता कायस्थ नाम का जिक्र किया गया है।

मतलब स्पष्ट है कि इस जाति में कई देशी-विदेशी तत्व रहे होंगे। जिनमें बदलते समय की मांग के अनुसार अपने हुनर, रहन-सहन, भाषा-विज्ञान में परिवर्तन कर सफल होने का जज्बा था उनका समूह कायस्थ के रूप में स्थापित हो गया। एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया कहता है कि मौर्यकालीन अफसरशाही में ये काफी प्रभावी थे। विद्वानों के लेखन में भी साफ है कि प्रारंभिक समय में लेखकीय और वैद्य के कार्य वर्ण से बंधे हुए नहीं थे।

बदलते राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति में जब इसकी महत्ता बढ़ी तो इन कार्यो के प्रति कई लोग आकृष्ट हुए। इसमें संभवत सभी वर्ण के लोग थे लेकिन उच्च वर्ण की बहुलता होने के कारण चित्रगुप्त को विष्णु के काया से उत्पन्न माना गया, और उन्हें कायस्थ उपाधि दी गई। संस्कृत शब्दों की संरचना के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर तीसरी शताब्दी के ग्रंथ माने जाने वाले याज्ञवल्क्य स्मृति में कायस्थ जाति का स्पष्ट उल्लेख मिलता है।

ऐसा नहीं कि इसके पहले यह वर्ग नहीं था, ये थे लेकिन सनातन समाज व्यवस्था के लिए अहम एक जातीय पहचान अभी नहीं मिली थी। काम की समानता के आधार पर विभिन्न वर्णो से आये लोग एक लंबे कालखंड के बाद एक जाति के रूप में संगठित हो गये थे। गुप्तकाल से मिली खास पहचान गुप्त काल में तो साम्राज्य के पाच प्रमुख पदों में एक प्रमुख कायस्थ का पद भी शामिल कर लिया गया।

इसके बाद तो उत्तरी, पश्चिमी और पूर्वी भारत के अधिकतर राज्यों में लेखा, जमीन संबंधी दस्तावेज व अन्य लेखकीय कार्य इस जाति के हाथ आ गया। गुप्तों ने बड़ी संख्या में बंगाल में कार्य के लिए कन्नौज व अन्य क्षेत्रों से ब्राह्मण और कायस्थों को बंगाल भेजा था। कश्मीर के कई राजवंश व बंगाल के पालवंश सहित कई अन्य वंश के शासक कायस्थ जाति के थे।

आईने अकबरी के लेखक अबुल फजल अपनी पुस्तक में इसकी पुष्टि करते हैं। बारहवीं शताब्दी में कश्मीर के प्रसिद्ध ग्रंथ राजतरंगणी में कल्हण कायस्थ शासकों व कायस्थों में व्याप्त भ्रष्टाचार का भी जिक्र किया है। अनेकों विद्वान इसे कायस्थों से ब्राह्मणों को मिल रही चुनौती से उपजे विद्वेष के रूप में भी देखते हैं। मध्यकाल के प्रारंभ में चंदेल, कलचुरी और प्रतिहार राजाओं के बीच कायस्थ अपनी दक्षता से काफी लोकप्रिय थे। कुछ तो लेखकीय और मंत्री कार्य से इतर सेनापति के पद तक पहुंच गए।

17वीं शताब्दी में मुगलों के कमजोर पड़ने पर जेस्सोर के कायस्थ राजा प्रतापादित्य ने खुद को स्वतंत्र घोषित करने वाले पहले राजा था। मुसलमानों के आने के बाद यह जाति और शक्तिशाली हो गई। अरबी, फारसी सीख कायस्थ राजकीय कार्य के लिए मुसलमानों की पहली पसंद बन गए। इस जाति के राजा टोडरमल मुगल सम्राट अकबर के नवरत्‍‌नों में शामिल थे। अबुल फजल तो यह भी कहते हैं कि बंगाल के अधिकतर जमींदार भी कायस्थ जाति के ही थे।

जब अंग्रेज शासक हुए तो एक बार फिर कायस्थों ने प्रशासनिक और लेखकीय कार्य के लिए अपनी योग्यता सिद्ध की। बने अंग्रेजों की पहली पसंद अंग्रेजी सिखने वाले ये पहली जमात के लोगों में शामिल थे। इस काल में लगभग 40 फीसद सरकारी पदों पर ब्राह्मण और कायस्थों का वर्चस्व था। भू अभिलेख में तो इनका वर्चस्व कुछ इस तरह था कि इन्होंने अपनी लिपि ‘कैथी’ ही विकसित कर ली।

इसी में अब भी कई क्षेत्रों के भू अभिलेख मिलते हैं। इस काल में राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तन ने जब सेवा के नये अवसर सृजित किये तो वकील, बैरिस्टर बनने वाले सबसे पहले जमात में कायस्थ ही शामिल थे। सिर्फ प्रशासनिक, लेखकीय व आकड़ा संचयन के कार्य में ही इस जाति का वर्चस्व नहीं रहा, सामाजिक परिवर्तन और देश के स्वतंत्रता संग्राम में भी इस जाति ने बढ़चढ़कर भाग लिया।

स्वामी विवेकानंद, संत अरविंदो, खुदीराम बोस, सुभाषचंद्र बोस, जय प्रकाश नारायण, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे कई प्रमुख लोगों ने इस जाति की प्रगतिशीलता और राष्ट्रप्रेम की गाथा रची। पहचान का संघर्ष जाति के रूप में अस्तित्व में आने के बाद सनातन सामाजिक व्यवस्था के किस वर्ण में इन्हें रखा जाए, इसे लेकर हमेशा उहापोह की स्थिति बनी रही।

पुरान कालीन कई ग्रंथ इन्हें क्षत्रियों से उपर लेकिन ब्राहमणों से नीचे का दर्जा देता है तो कई इन्हें सीधे शूद्र बताता है। हां बंगाल में इन्हें हमेशा कुलीन का दर्जा मिला। मुगलकालीन ग्रंथ आइने अकबरी में वर्ण के झंझट से अलग इन्हें पांचवें वर्ण का दर्जा दिया गया। पहचान का संघर्ष अंग्रेजों के न्यायालय में भी पहुंचा। जहां हर्बर्ट होप रिज्ले द्वारा मिताक्षरा के आधे-अधूरे अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर कोर्ट ने कायस्थों को शूद्र माना।

इसके खिलाफ न्याय का संघर्ष चलता रहा 1890 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन्हें क्षत्रिय का दर्जा दे दिया वहीं 1927 में पटना हाईकोर्ट ने इन्हें उच्च जाति का बताया, जिसके आधार पर 1931 के जनगणना में उन्हें इसी वर्ग के तहत रखा गया।

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