झारखंड के वीर सपूत: कायस्थ गौरव पांडेय गणपत राय

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झारखंड के वीर सपूत: कायस्थ गौरव पांडेय गणपत राय

– वेद आशीष श्रीवास्तव
युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष, अखिल भारतीय कायस्थ महासभा

क्रांति का सेनापति, जिसने मातृभूमि के लिए बलिदान दिया

झारखंड की धरती शूरवीरों की जननी रही है। यहाँ की मिट्टी में केवल खनिज संपदा ही नहीं, बल्कि बलिदान की अमर कहानियाँ भी दफ्न हैं। ऐसी ही एक गाथा है झारखंड के महान स्वतंत्रता सेनानी पांडेय गणपत राय की – जो न केवल इस राज्य के दूसरे जमींदार थे, बल्कि 1857 की पहली स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी सेनानायक भी।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

पांडेय गणपत राय का जन्म 17 जनवरी 1809 को झारखंड के लोहरदगा जिले के भंडरा प्रखंड अंतर्गत भौरों गांव में एक प्रतिष्ठित कायस्थ जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री रामकिशुन राय एवं माता श्रीमती सुमित्रा देवी थीं। उनके चाचा सदाशिव राय, नागवंशी राजा जगन्नाथ शाहदेव के दीवान थे। गणपत राय ने प्रारंभिक जीवन पालकोट में अपने चाचा के साथ बिताया जहाँ उन्होंने हिंदी, अरबी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की। उन्हें घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवार और बंदूक चलाने में विशेष रुचि थी।

दीवान से सेनानायक तक का सफर

अपने चाचा की मृत्यु के बाद गणपत राय को नागवंशी दरबार में दीवान नियुक्त किया गया। उन्होंने अपनी दीवानी का संचालन पतिया गांव से किया, जो पालकोट थाना क्षेत्र में आता था। अपने न्यायप्रिय और अनुशासित स्वभाव के कारण वे आदिवासी और गैर-आदिवासी समाज दोनों में अत्यंत लोकप्रिय थे। लेकिन यही लोकप्रियता उनके लिए खतरे का कारण बन गई, जब अंग्रेजों के पिट्ठू जमींदारों ने उनके खिलाफ षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया।

एक दिलचस्प विवाह प्रसंग

गणपत राय का जीवन केवल युद्ध और प्रशासन तक सीमित नहीं था। मात्र 15 वर्ष की आयु में जब वे एक बारात में पलामू के करार गांव गये, तो वहाँ शास्त्रार्थ हो रहा था। बालक गणपत राय ने अपनी तर्कशक्ति और बुद्धिमत्ता से सभी को प्रभावित किया और उसी मंडप में उनकी शादी तय हो गई। वह बारात में बाराती बनकर गये थे, लेकिन लौटे दुल्हन संग।

1857 की क्रांति और विद्रोह का नेतृत्व

10 मई 1857 को मेरठ से शुरू हुई स्वतंत्रता की ज्वाला झारखंड तक पहुँची। 30 जुलाई 1857 को हजारीबाग की आठवीं पैदल सेना ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। क्रांतिकारियों ने एक संयुक्त सेना बनाई – ‘मुक्ति वाहिनी सेना’, जिसका नेतृत्व किया गया पांडेय गणपत राय द्वारा।
उन्होंने डोरंडा छावनी, रांची कचहरी, थाना और जेल पर हमले करवाए। जेल के बंदियों को मुक्त किया गया। ऐसा कहा जाता है कि लगभग एक महीने तक रांची स्वतंत्र रहा, और इस क्रांति के केंद्र में गणपत राय की योजना, संगठन और साहस था।

विश्वासघात और गिरफ्तारी

जब आज़ादी का सूरज तेज़ी से उग रहा था, तब उसके बीच अंधेरे का एक बादल भी मंडरा रहा था – देशद्रोह। एक दिन जब गणपत राय लोहरदगा की ओर जा रहे थे, तो रात होने पर एक मित्र जमींदार के गाँव में रुक गये। लेकिन वही मित्र अंग्रेजों का गुप्तचर निकला। अंग्रेजों ने उन्हें वहीं से गिरफ्तार कर लिया।

बिना मुकदमे के फांसी

उन्हें रांची लाया गया, लेकिन उन्हें न तो कोई मुकदमा मिला, न ही न्यायालय की सुनवाई। कमिश्नर डाल्टन ने थाने में ही अदालत लगाकर उन्हें मृत्यु दंड दे दिया।
21 अप्रैल 1858, रविवार का दिन था। रांची के शहीद चौक स्थित एक कदम्ब के पेड़ से उन्हें फांसी दे दी गई।
यह सज़ा इतनी गुप्त थी कि उनके परिवार को भी इसकी जानकारी तक नहीं दी गई।

एक अमर गाथा

पांडेय गणपत राय केवल एक योद्धा नहीं थे, वे एक जननायक, संगठनकर्ता और देशभक्त थे। उनका योगदान झारखंड ही नहीं, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
आज जब हम रांची के शहीद चौक से गुज़रते हैं, तो वहाँ की हवा अब भी उनकी त्याग और बलिदान की कहानी कहती है।

नमन है उस वीर को…

पांडेय गणपत राय की गाथा आज भी युवाओं को प्रेरित करती है कि त्याग, ईमानदारी और राष्ट्रप्रेम केवल किताबों की बातें नहीं, बल्कि जीने का एक साहसिक तरीका है।
झारखंड के इस महान सपूत को अखिल भारतीय कायस्थ महासभा और सम्पूर्ण भारतवर्ष की ओर से कोटिशः नमन।

“वे मिटे नहीं… अमर हो गए।”
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